
जग की आत्मा
प्रकृति रचयिता
सर्वत्र व्याप्त
मैं निर्मल एक बूँद हूँ II
पपीहे की प्यास बुझाती,
बाँस को बंसलोचन बनाती
फसलों में फली लाती
सीप में मोती बनाती हूँ
मैं निर्मल एक बूँद हूँ II
सागर से उठकर नभ में
उड़ जाती वाष्प बन कर
बादल बनाती एक होकर
फिर वही सागर बन जाती हूँ
मैं निर्मल एक बूँद हूँ II
लहराती बनकर हरियाली
देती किसानों को खुशहाली
प्यासे का प्यास बुझाने वाली
शरीर की मलिनता मिटाती हूँ
मैं निर्मल एक बूँद हूँ II
जग में अमृत बन बरसती
हिमशिला नग पर बनाती
झरने से नदी रूप लेती
मर्ज की दवा बन जाती हूँ
मैं निर्मल एक बूँद हूँ II
वर्तमान भविष्य संसार की
मैं ज्योति एक आँख की
जब कोई पीड़ा है उपजती
आँसू बन कर छलकती हूँ
मैं निर्मल एक बूँद हूँ II
श्रद्धा से –
अविनाश कुमार राव

