
टकी लगाये बैठा
देखता, आशा करता
हर बादल से, शायद
ममता-सी प्यास बुझेगी अब |
जैसे, वह गगन भी
तोड़ता चाह
निकलता आगे
बरसता स्थान हरे भरे जहाँ
नदियाँ, नहरें
निर्झर जल बह रहे जहाँ |
न मैं चातक, पपीहा न
जो बूँद एक से वर्ष बिताऊँ
आश थी ऐसी बूँद मुझे
जो आजीवन प्यास बुझाता |
थी ममता की वह प्यास
न जान सका कोई
कौन सुने यह अंतर्नाद
हर वक्त रुलाती तुम्हारी याद |
थी आश तुम्हारे आँचल में
गर, सो जाता यहाँ चिर
जगाती देकर वात्सल्य आवाज
साहस देती जीने का जग में |
श्रद्धा से-
अविनाश कुमार राव