जहाँ एक है सूरज-चाँद का खेल अनोखा अनुपम प्रभा का मेल, हमजोली के आभा का खेल लोकालोक दोनों का लक्ष्य एक, पर यहाँ मानव का वैचारिक भेद रोती होगी माँ धरती, आँचल अपनी फटती देख |
थे जन्म समय सब में एक रक्त रंग खाया सबने एक ही अन्न एक प्रकृति में पले बढ़े, एक ईश्वर के कर नाम भेद हो धर्म नाम पर बटे अनेक रोती होगी माँ धरती, आँचल अपनी फटती देख |
जो हर कूड़े करकट कर देती नष्ट न देते ये मैल भी उसे कष्ट जितना विचार नैतिकता भ्रष्ट, और भी ज़ेहाद, माओ, नक्सल से त्रस्त जगह-जगह मानवता मरते देख, रोती होगी माँ धरती, आँचल अपनी फटती देख |
जहाँ एक ही कागज़ पर नैतिक पाठ पढ़ा धरा पर देशार्थ जिसका कर्ज था वहीं से ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ ‘लेके रहेंगे आज़ादी’ ‘शाहीन बाग़ से खंडित करते’ हाथों में पत्थर उठने का खेद रोती होगी माँ धरती, आँचल अपनी फटती देख |
जहाँ खिले पीले, नीले, लाल पुष्प एकता का खुशबू फैलाना है मनोहर दृश्य उद्देश्य एक, न है अचेतन पेड़-पौधों में अन्तः भेद जितना है हिन्दू-मुस्लिम पटती दूरी का खेद रोती होगी माँ धरती, आँचल अपनी फटती देख |
न कोई चिल्लाता हिन्दू-हिन्दू, न मुस्लिम-मुस्लिम गर, यहाँ मानव धर्म व्यवहृत होता, देश के माथे से कलंक मिटेगा न टुकड़े होंगे भारत माँ के न होगा आतंक से भेंट तब हर्षित होगी, मानव मुस्कान धरा पर हँसते देख |