सब्जियों के संग
लकठा या खुरमा लेकर
बाजार से आते थे
उस मिठाई का
जायका सब लेते थे,
पोते-पोतियों का दौड़कर आना
हँसना, बातें करना
जो बुढ़ापे की राह के साथी थे,
अब इम्तिहान आ गया था
लाठियों का,
बुढ़ापा गिर गया
सहसा! एक दिन
कूल्हा सरक गया,
बोल दी एक बहू ने
नहीं खिला पाऊँगी,
अब मैं,
दूसरी भी मुकर गई
कुछ महीने बाद
तीसरी ने बीमार होने का
बहाना परोस दिया,
लड़कों ने अपनी गरीबी
और नौकरी का हवाला दे दिया,
अब बुढ़ापा समझ गया
घिसटते डंडों के सहारे
वह धीरे-धीरे नदी के तीरे
एकांत हो लिए
अश्रु भी सूख गए,
कालकवलित पत्नी से
मन ही मन
दुःख सब कह गए,
अच्छा हुआ तुम पहले चली गई
आ रहा हूँ मैं भी
पत्नी आँसू भाँप गई,
बुढ़ापा बोला
अब हार गया हूँ
ज़ीस्त परिसीमित हो गई,
लौटने नहीं दिया,
अंबार दु:खों का
संतप्त भूख ने
मौत के मुँह में
धकेल दिया,
लाश ऊपर आई जब
छाती पीट-पीट कर रोए सब,
चीत्कार, चिल्लाते
यह कैसे हो गया ?
आप छोड़कर हमें
कैसे चले गए,?
बाद अंतिम संस्कार के
अस्थियाँ नहाईं
काशी, हरिद्वार, प्रयाग में,
दान खूब किया ब्रह्मभोज में
मुख्य द्वार पर
रंगीन चित्र में
लटक गया माला भी
सुगंधित गले में,
पीढ़ी देखी थी यह तमाशा
आगे चलती गई यही परंपरा
मिलती सबको वही यातना
द्वार पर लटकी सबकी आत्मा
आज भी भोजन को
व्याकुल है बुढ़ापा ||
श्रद्धा से -
अविनाश कुमार राव